दीपक जलाने का रहस्य, आरती का अर्थ:-
पुराने समय में, मूर्ति को अँधेरे में रखा जाता था, जिसे गर्भ गृह कहते थे। ब्रह्म मुहूर्त में स्नान के बाद सूर्य निकलने से पहले लोग ध्यान के लिए मन्दिर जाते थे। रूप ध्यान करने के लिए मूर्ति की परिकल्पना की गई थी और आप तभी भगवान की मूर्ति का चेहरा देख सकते थे जब उसे दीपक की रोशनी से दिखाया जाए। दीपक की रोशनी से एक-एक अंग को दिखाते हुए वर्णन किया जाता था। जैसे-
बँधी सिर तिरछी सी पगड़ी,
जड़ी मणि मुक्तन मुकुट लड़ी,
अड़ी अड़बंग मोर पंखुड़ी,
मकुट की लटक, भृकुटि की मटक, लकुटि की अटक,
चटक केशर छवि न्यारी की, कि वृन्दाविपिन बिहारी की।
आरती कुञ्ज बिहारी की, कि वृन्दाविपिन बिहारी की।।
या
गौर सिर कनक मुकुट राजै,
चन्द्रिका चारु सुछवि छाजै,
कुटिल कुंतल अलि भल भ्राजै,
लखत जेहि शिखि कलाप लाजै,
माँग सिंदूर, मोतियन पूर, सजीवन मूर, ब्रह्म गोवर्धनधारी की।
आरती भानुदुलारी की, कि श्री बरसाने वारी की।।
इत्यादि …..………
इसके पीछे का सन्देश है कि आप को स्मरण रहे कि भगवान आपके मन या हृदय की गहराईयों ( गर्भ गृह ) में बसते हैं। आपको उसे स्वज्ञान ( दीपक के प्रकाश ) के माध्यम से देखना है।
ज्यों-ज्यों साधना करते-करते अंतर्ज्ञान या दिव्य चक्षुओं का प्राकट्य होगा, उसी ज्ञान के प्रकाश से आपको उस दिव्य सत्य का धीरे-धीरे दर्शन होना शुरू होगा। यही सच्चा सार है।
आज भी इसीलिए आरती सूर्य उदित होने से पहले और सूर्य अस्त होने के बाद की जाती है, अर्थात अँधेरे के प्रतीक को अभी भी माध्यम बनाया हुआ है, जैसे अंधेरे में पुराने समय में दीपक जलाकर भगवान की छवि को दिखाया जाता था, लेकिन उसके पीछे के उद्देश्य को सर्वथा भूल गए हैं।
आज सार का लोप हो गया है, रह गयी है- एकमात्र प्रतीकात्मक आरती।
आरती का अर्थ होता है “आर्त” नाद करते हुए भगवान को उनके दर्शन के लिए पुकारना। परंतु धीरे धीरे उसमें भौतिक कर्मकांड घुसेड़ दिया गया। बाती इतनी बड़ी होनी चाहिए, लौ ऐसा जलना चाहिए, इस दिशा में मुँह करके बैठना चाहिए, इत्यादि। अब तो और भी टोटके लोगों ने उसमें डाल दिए हैं। लेकिन अगर उद्देश्य गायब है या उसके पीछे का मर्म और सार ग़ायब है तो वह फलीभूत नहीं होगा।
इसीलिए उद्देश्य समझ कर साधना करते हुए अपने अंदर के अलौकिक ज्ञान के प्रकाश को बढ़ाते जाना है तभी वह अलौकिक तत्व, एकमात्र सत्य हमें समझ में आएगा।
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