Shwet Ras
(पद रचनाएं)
” दीखै री सखि , चहुँदिशि मोहें नीलाभ “
दीखै री सखि , चहुँदिशि मोहें नीलाभ !
शीश मुकुट कर मुरली सुशोभित , पहिने रे पीताभ !
नीलकमल सों अँखियाँ जिनकी , तिरछी भौंह कृष्णाभ !
मधुर मधुर मुसकनि नित जिनकी , दन्त सुघर श्वेताभ !
झूमत कुण्डल , लट घुंघरारी , मृदुहिं होष्ठ अरुणाभ !
रोम रोम रस बरबस टपकत , अंग अंग अमिताभ !
कहत “श्वेत” वह हरि की झाँकी , करत हृदय हरिताभ !!
श्री श्वेताभ पाठक
भावार्थ :- एक सिद्धावस्था की गोपी दूसरी गोपी से श्यामसुंदर के वियोग में कहती है की हे सखी , अब तो चारों दिशाओं में मुझे श्यामसुंदर ही दिखाई पड़ते हैं !
जिनके शीश पर रत्नजटित मुकुट है , हाथों में मुरली शोभायमान है और जिन्होंने पीले वस्त्र धारण किया हुआ है ! जिनकी आँखें नीलकमल के समान हैं और काली काली तिरछी भौंह से सुशोभित है !
जिनके अधरों नित प्रति मधुर मधुर मुस्कान रहती है और बहुत सुंदर श्वेत दांत उनकी शोभा में और भी वृद्धि कर देते हैं !
उनका कुंडल झूमता रहता है ( हिलता रहता है ) उनकी लट घुन्घरारी है और बहुत ही कोमल लाल वर्ण के होंठ हैं !
उनके रोम रोम से अनवरत रस टपकता रहता है , और प्रत्येक अंग की आभा असीमित है !
यह श्वेत और शुद्ध हृदय में अविरल श्यामसुंदर की झांकी मेरे हृदय को निरंतर प्रेम मय बनाए रखती है !
” मन मूरख अब तो मान रे “
मन मूरख अब तो मान रे !
देह क्रिया ते कबहुँ न मिलिहैं , मन के श्री भगवान् रे !
चार धाम पद यात्रा कर चंह , लख कर गंग स्नान रे !
करहु करोरन योग यज्ञ अरु , धर्म को लै नुष्ठान रे !
तिरुपति साईं मंदिर मस्जिद , चँह लख दे अनुदान रे !
व्रत उपवास नियम बहु कर्मा , शारीरिक अनुपान रे !
अगणित कर मानुष सेवा चंह , गौ रक्षा अभियान रे !
कर्म धर्म पालन कर कर नित , अगणित जनम नसान रे !
नहिं उदित गर प्रीती भक्ति , गुणा शून्य सब जान रे !
यह सब कर्म धर्म करि पालन , मिलहिं स्वर्ग लोकान रे !
स्वर्गहु अल्प अंत दुखदायी , कहत सबै ग्रंथान रे !
महामूढ़ नर जान स्वर्ग हित , करत यत्न नादान रे !
शूकर कूकर योनि पाव पुनि , जब सब पुण्य नसान रे !
मिळत न घंटा रोज बजाये , अगरु धूम दरसान रे !
व्रत उपवास माल कर कंठी , सबै मूढ़ भरमान रे !
डारि तिलक कर माला कंठी , प्रेम त कर हरि गान रे !
मिलहिं न कौनो पाठ मंत्र में , योग नियम अरु दान रे !
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा , एक नियम यह जान रे !
तड़प होय नित हरिहिं मिलन हित , जल मछरी सम जान रे !
भक्ति प्रेम व्याकुलता बाढ़े , बहै अश्रु अँखियान रे !
रोम रोम जब उठै हूक अरु , प्राण बने निष्प्राण रे !
श्याम दरस बिनु जब उर नैनन , पल नहिं रह सक आन रे !
लगे प्राण नैनन की बाजी , एक दरस अभियान रे !
शुद्ध हिये तब देय हरिहिं गुरु , दिव्य प्रेम अनुदान रे !
तब हो श्वेत शुद्ध अंतर उर , मिलहिं तोहिं भगवान् रे !
श्री श्वेताभ पाठक
भावार्थ :- अरे मन मूर्ख अब तो यह बात मान ले ! भगवान् किसी भी शारीरिक क्रिया से नहीं मिलेंगे क्युकी भगवान् का सम्बन्ध केवल मन से है (मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः ॥)
चाहे चारों धाम की पद यात्रा कर लो , चाहे लाखों बार गंगा में स्नान कर लो !
चाहे करोंड़ों योग यज्ञ , जप , दान और धार्मिक अनुष्ठान करो !
तिरुपति बालाजी , साईं मंदिर , मस्जिद इत्यादि में चाहे करोंड़ों रूपये दान में दे दो !
चाहे कितने भी व्रत उपवास कर लो , सब शारीरिक क्रियाएं हैं जिनसे भगवान् का लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है !
चाहे कितने भी मानव सेवा करो , चाहे कितना बड़ा गौ रक्षा अभियान चला लो !
इन सब कर्म धर्म के पालन करते करते अनंत जन्म व्यतीत हो चुके हैं ! अगर इन सब कर्म या धर्म से भगवान् के प्रति शुद्ध प्रेम का उदय नहीं होता तो सब व्यर्थ है ! इन सभी धर्म और कर्म के पालन से केवल स्वर्ग मिलेगा जो की नश्वर है जोकि सभी धर्म ग्रन्थ चिल्ला चिल्लाकर बोल रहे हैं ! उनको गीता में महामूर्ख बोला गया है जो इन सब कर्म धर्म के चक्कर में पड़ते हैं और स्वर्ग प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं !
जब स्वर्ग में पुण्य को भोग लिया जाता है फिर पुण्य ख़त्म होने के पश्चात जीव को हीनतर योनियों में पटक दिया जाता है !
चाहे कितना भी रोज मंदिर जाके घंटा बजाओ ! कितना भी अगरबत्ती और धुप दिया दिखाओ ! उससे भगवान् नहीं मिलने वाले !
व्रत उपवास माला तिलक कंठी इत्यादि में ही मनुष्य भरमा रहा है ! इन सब को त्याग करके एकमात्र प्रेम से हरि या भगवान् का गुणगान करो !
भगवान् किसी भी हनुमान चालीसा, सप्तशती और तरह तरह पाठों में , मंत्र जाप, योग , नियम , दान इत्यादि में नहीं मिलते !
बस एक नियम यह जान लो की भगवान् प्रेम के बिना कभी नहीं मिल सकते , असंभव है !
जब भगवान् से मिलने के लिए ऐसी प्रबल इच्छा एवं तड़प उठेगी की मछली के सामान छटपटाओगे !
भक्ति और प्रेम में व्याकुलता इतनी बढ़ जाए की ननों से अविरल अश्रु प्रवाहित हो ! रोम रोम में उनके मिलने की प्यास और तड़प हो और प्राण निष्प्राण बन जाएँ उनके बिना ! जब भगवान् के दर्शन के लिए नैन और ह्रदय एक पल भी न रह पाएं ! प्राण और नैनों की बाजी लग जाये की बस श्यामसुंदर का दरसन और प्रेम पाना है !
अविरल अश्रु से ह्रदय का शुद्धिकरण होगा जिसमें हरि और गुरु ( महापुरुष ) दिव्य प्रेम दान करेंगे ! तब उस दिव्य देह जिसमें सब कुछ दिव्य होगा उसी से दिव्य भगवान् का दर्शन और प्रेम प्राप्त होगा !
“अलि तू काहें सब कलि दास “
अलि तू काहें सब कलि दास ?
इत उत भटकत नित सुमनन पर , लै अंतरि मधु आस !
भटकत भ्रमत भ्रमर कलि कलि पर , कीन्हों विविध प्रयास !
करत अनादिकाल ते श्रम नित , नहिं पायो सुखरास !
हो समाप्त जब रसहिं पुष्प सों , गयो तु अन्यनि पास !
भाँति भाँति पायो पराग सों , अंत को अंत उदास !
भूलि गयो तू एक पुष्प जो , खिल्यो है बारहमास !
रसिक राज जो पुष्पराज सों , कियो नाहिं विश्वास !
रस अम्बुधि अरु मधुर रूप जो , सुन्दर मदिर सुवास !
मान बात उन बृज रसिकन को , खोज रसिक रस रास !
पाकर पुष्प पराग पियूष हो , श्वास श्वास उल्लास !
“श्वेत” प्रभात पुष्प मधुरस पा , “श्वेत” करहुँ अभिलास !
श्री श्वेताभ पाठक
भावार्थ :- एक तत्ववेत्ता भ्रमर रुपी मन से कहता है की हे भँवरे , तू क्यों सब कलियों का दास बना जा रहा है ! अर्थात तू क्यूँ इस संसार के रंग बिरंगे एवं नाशवान वस्तुओं में अपना सुख ढूंढ रहा है ?
तरह तरह के फूलों पर तू निरंतर भटक रहा है की कहीं से सुख , आनंद , रस की एक बूँद मिल जाए !
अनादिकाल से तू परिश्रम करते करते थक गया ( विभिन्न प्रकार की योनियों में भटकते भटकते और सुख को ढूंढते ढूंढते ) और तूने काफी प्रयास किया उस अक्षुण सुख को प्राप्त करने हेतु पर कहीं भी सुख या आनंद नहीं मिला जो सदा के लिए हो !
एक पुष्प में से जब पराग ख़तम हो जाता है तब तू दुसरे पुष्प की तरफ चला जाता है ! अर्थात एक वस्तु से जब आनंद नहीं मिलता तो इस आशा में की दूसरी जगह आनंद मिलेगा , तू दूसरी तरफ जाता है !
तरह तरह के पराग तूने विभिन्न पुष्पों से प्राप्त किया पर अंत में तू अन्दर से उदास ही रहा क्यूंकि तुझे जो आनंद या रस चाहिए था , वह नहीं मिला !
सब पुष्पों पर जाने के बावजूद तू एक ऐसे पुष्प को भूल गया जो निरंतर बारहमास खिला रहता है ! जिसका कभी विनाश नहीं होता !
जो रसों और आनंद का समुद्र है , सभी पुष्पों का राजा है , तूने उसपे विश्वास नहीं किया ! जिसका रूप अत्यंत सुन्दर है , अथाह रस का सागर है , अलौकिक रूप , रस , सुगंध से परिपूर्ण है !
सारे महापुरुष , ब्रज रसिक , हर धर्म के प्रवर्तक , हर वेद शास्त्र जिसको इशारा कर रहा है , बस तू उसी पुष्प को खोज ले जिसको पाकर एवं जिसका रस पीकर तेरे श्वास श्वास , अंग अंग में आनंद समा जाएगा !
” सोइ जानहु जेहु देहिं जनाहिं ! जानहिं तुमहिं तुमहिं होइ जाहीं ! “
श्वेत प्रभात में अर्थात इस मनुष्य देह में ही उस श्वेत , शुद्ध पुष्प ( भगवान् ) को प्राप्त कर अपनी आनंद और रस की अभिलाषा और लालसा को शुद्ध कर ले ! अर्थात भगवत्प्राप्ति कर ले !
” कर्मभिरत नित खग प्रति पल पल “
कर्मभिरत नित खग प्रति पल पल !
उठि करि भोर किरण ते पहिले , भरत उदर कृमि, कीटक, फल, जल !
उड़ि उड़ि सुतल वितल भू तल तल , करत परिश्रम बनि नित चंचल !
तृण तृण जोरि जोरि चहुँदिशि ते , निर्मित करत नीड़ निज संबल !
प्रणय मास जब आय , मिलन करि , अंडरूप महँ पाव योगफल !
करि करि यतन भरत शिशु उदरन , रक्षण करत सकल खल रिपु दल !
जब निकसत शिशु पंखनाल तनु , भूलि तात , उड़ि जात गगन तल !
ऐसोहिं मानव करत कर्म नित , जनु खग कर्म करत नित अविचल !
बहुविधि नाच नचावत माया , सकल जीव नित पियत गरल मल !
अंतर नहीं कछु दीखत इत उत , मनुज कर्म पशुदल अरु खगदल !
सकल धर्म ग्रंथन लेखिन कह , इक अंतर विशेष जानुहिं भल !
बुधि प्रधान यहु देह पाय नर , करहिं विलग सब कर्म ते पशुदल !
उत सब कर्म होत निज तनु हित , नहिं चिंतित निज आतम अरु कल !
उत तनु बस इक भोग योनि सम , नहिं स्वतंत्र कोउ करन कर्म भल !
मानि बात हरि अरु उन हरिजन , कर्म करहुँ तनु होय सुफल फल !
होइहैं नाहिं कोऊ निज आपुन , मरि मरि मनुज करे चंह छलबल !
इक दिन सब पंछी उड़ि जइहैं , अइहैं न काम अंत कोउ जन बल !
तनहिं कार में , मनहिं यार में , यहु इक ज्ञान राखु बुधि कौशल !
करू व्यवहार जो लागि आवश्यक , करहुँ प्रेम प्रभु हो नित विह्वल !
नीर बहावहुँ हरिहिं मिलन हित , करूँ निर्मल मन जनु गंगाजल !
गांठि बाँधु यह बात “श्वेत” को , जनि उलझहुँ यहु जग मल दलदल !
श्री श्वेताभ पाठक
भावार्थ :- एक पक्षी , चिड़िया निरंतर अपने कर्म में रत है ! लगातार काम कर रही है !
सुबह , जब सूर्य की प्रथम किरण भी नहीं पहुंची होती , उससे पहले उठकर वह अपना पेट कीट, कृमि , मकोड़े , फल और जल से भरती है !
चारों दिशाओं में उड़ उड़ कर वह निरंतर परिश्रम करती रहती है !
चारों दिशाओं से तिनका तिनका जोड़ जोड़ कर अपना घोंसला तैयार करती है जिसमे वह रह सके !
जब उसका प्रणय समय आता है ( Breeding period ) तब वह संसर्ग कर अंडे देती है !
अपने शिशु को पालने पोसने के लिए वह घोर प्रयतन करती है ताकि उसका पेट भर सके , शत्रुओं शिकारियों से रक्षा कर सके !
परन्तु जब उसी बच्चे के पंख निकलते हैं तो वह अपने माँ बाप को भुला कर दूर उड़ कर चला जाता है !
ऐसे ही , ठीक इस प्रकार हर मनुष्य कर्मरत है और निरंतर चिड़ियों और पशुओं की तरह ऐसे ही कर्म करने में लगा पड़ा हुआ है !
ये ऐसी अविजित माया है जो सभी जीव को मोहपाश में बांधकर नाच नचा रही है और सभी लोगों को विष और गन्दगी खिलाये जा रही है !
सभी कर्म कर रहे हैं निरंतर ! न ही मनुष्य के कर्म में अंतर है ना ही पशु और पक्षियों के कर्म में ! सब एक ही कर्म कर रहे हैं माया से प्लावित होकर !
परन्तु विश्व के समस्त धर्मशास्त्र और ग्रन्थ एक अंतर अवश्य बता रहे हैं !
वह है मनुष्य देह का बुद्धिप्रधान होना जिसके कारण उसके समस्त कर्म पशुओं के कर्मों से भिन्न हो जाते हैं !
पशुओं में सभी कर्म एकमात्र अपनी देह के निमित्त होता है और उन्हें अपना भविष्य और आत्मा के कल्याण की चिंता नहीं रहती ! पशुओं की योनि केवल भोग योनि है ( अर्थात यहाँ उनके किये हुए कर्मों को भोगवाया जाता है ) और उसमें अच्छे कर्म करने की स्वतंत्रता नहीं होती !
पर मनुष्य योनि एक कर्मप्रधान देह हैं जहां आप अच्छे और बुरे कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं !
इसीलिए भगवान् और उनके संत या भगवत प्राप्त महापुरुष की बात मानकर ऐसा कर्म करना चाहिए जिससे ये मनुष्य देह का पाना सार्थक हो सके !
इस संसार में कोई भी अपना नहीं हो सकता चाहे मनुष्य उसके लिए तरह तरह के छल और बल लगा के मर जाए !
एक दिन सभी अपना काम पूरा होते ही पंछी की तरह उड़ जायेंगे और तुम्हे देखेंगे तक नहीं की तुम कहाँ हो और अंत समय में कोई काम नहीं आएगा !
इसीलिए हमेशा ध्यान रखो की संसार में एकमात्र व्यवहार करना है और प्रेम केवल भगवान् से करना है ! शरीर से संसार का काम और मन से भगवान् और अपने आत्मा के कल्याण के लिए कर्म !
जितना आवश्यक हो संसार में , जिससे तुम्हारा काम चल जाए बस उतना ही मतलब संसार से रखो बाकी समय भगवान् के प्रेम में तड़प कर आंसू बहाओ !
भगवान् के प्रेम को पाने और उनसे मिलने के लिए प्रेम में व्याकुल होकर निरंतर आंसुओं की वर्षा करो जिससे मन गंगाजल के समान निर्मल और शुद्ध होगा !
इसीलिए शुद्ध व्यक्तित्व और महापुरुषों ( जिनका श्वेत ह्रदय है ) उनकी बात मानकर तुरंत अपना कल्याण करने में जुट जाओ और इस संसार रुपी दलदल में मत फँसो !
” मोहिं सद्गुरु लीन्हीं बचाय “
गुरु पूर्णिमा पर विशेष :
मोहिं सद्गुरु लीन्हीं बचाय !
डूबत रह्यो अगाध उदधि मंह , ऊपर नीचे जल अधिकाय !
भांति भांति के विषम जीव सब , नोंचत इत उत मम तनु खाय !
अन्धकार चहुँ ओर दिखत रह , कोऊ दिशा नहिं कछु लखाय !
क्रंदन कातर करुण करत नित , जड़ चेतन सों हौं डरपाय !
मम क्रंदन सुनि तरनि तापर , बैठि रह्यो इक नाविक आय !
ज्ञान की तरणी , प्रेम का चप्पु , नाविक बन मम सद्गुरु आय !
हाथ पकरि मोहें तरनि बिठायो , चलहु गति ते तरनि चलाय !
मोहिं बचावत , आस बढ़ावत , सद्गुरु श्वेत भूमि तट आय !
श्री श्वेताभ पाठक
भावार्थ :- मुझको मेरे परम कृपालु दयालु गुरुवर ने भव सागर से बचा लिया !
मैं इस अगाध और गहरे महासागर में डूब रहा था ! मेरे चारों तरफ विषय वासना रुपी जल ही जल था जिसमें मैं डूबता ही जा रहा था !
इस समुद्र में तरह तरह के विषम जीव ( काम , क्रोध , लोभ , इर्ष्या , द्वेष , पाखंड , मोह , स्वार्थ इत्यादि ) सब मुझे नोंच नोंच के खा रहे थे !
हर तरफ मुझे केवल अन्धकार अन्धकार ही दिख रहा था और कोई भी दिशा नहीं दिख रही थी की मैं कहाँ जाऊं ?
मैं बहुत ही कातर दृष्टि से आस लागाये क्रंदन कर रहा था और सब जड़ चेतन सभी चीजों से डर रहा था !
अचानक एक नाविक एक नाव लेकर मेरे क्रंदन और हाहाकार को सुनकर मेरे पास आया !
वह नाव ज्ञान की बनी हुई थी , और प्रेम के चप्पू से सद्गुरु रुपी नाविक उसे चला रहे थे !
सद्गुरु रुपी नाविक ने मेरा हाथ पकड़कर ज्ञान रुपी नौका में मुझे बिठाया और तेज गति से उसे नौका चलाते हुए तट की तरफ बढ़ने लगे !
मुझे बचाते हुए और मुझे सांत्वना देते हुए , सद्गुरु रुपी नाविक ने मुझे श्वेत भूमि ( शुद्ध तत्व ) पर पहुंचा दिया !
” देखो री माई , मुखमंडल को हास “
देखो री माई , मुखमंडल को हास ।
चन्द्रानन अस शरद चंद्रिका , करत रसिक रस रास ।
अधर मधुर मधु भरे कलश सों , वन जनु खिलत पलास ।
सुघर दशन मुक्ता पंक्तिहुँ जनु , निकसत श्वेत प्रभास ।
जस जस निरखत तस तस औरहुँ, बढ़त रहत नित प्यास ।
देखत बिकी सबै ब्रज बनिता , करत दीर्घ उच्छवास ।
परमहंस लखि बिसरि ब्रह्मरस , शिशिर बन्यो मधुमास ।
क्षुधित रसिक आहार मधुर नित , जियत पाउ यहु ग्रास ।
बनि चकोर चहँ नित प्रति निरखूँ , करत श्वेत अभिलास ।
श्री श्वेताभ पाठक
भावार्थ :- अरे देखो रे , हमारे श्यामसुंदर के मुखमंडल मुखकमल पर वह उर्जित मुस्कान और हँसी को देखो ।
चन्द्र सा मुखमंडल ऐसा प्रकाशित हो रहा है मानो शरद चन्द्र की किरणें निकल रही हों और उस पर उनकी मुस्कान ऐसे प्रतीत हो रही है मानो सभी प्रेम सिक्त भगवद रसिक समुदाय अर्थात गोपी जन महारास कर रहे हों जिससे रस बरस रहा हो ।
उनके लाल लाल अधर होंठ मधु रस से भरे कलश के समान लग रहे हैं और इस तरह लग रहे हैं मानो वन में पलाश के पुष्प खिल गए हों ।
सुंदर दाँतों की पंक्तियों की शोभा ऐसे विकसित हो रही है मानो मोतियाँ चमक रहे हों जिनमें से सफेद श्वेत रंग का प्रकाश निकल रहा हो ।
इस छवि को जितना जितना देखते जाओ , उतना उतना और और देखने की प्यास बढ़ती ही जाती है ।
इस छवि को देखकर , उनके मुखमंडल को देखकर शुद्ध तत्व की परम प्रेम मय गोपियाँ अपना सब कुछ भूल जाती हैं , उनका सब लुट जाता है और वह लंबी लंबी श्वांस लेने लगती हैं ।
लंबी श्वांस का अर्थ होता है विकारों से मुक्ति , मन का स्थिर हो जाना । यौगिक श्वांस या तंत्र में दीर्घ श्वांस का अर्थ होता है चंचल मन की स्थिरता ।
जब कभी यह छवि परमहंसों को दिखता है किसी रसिक की कृपा से तो परमहंस भी अपनी शुष्क ब्रह्म रस का त्याग कर देते हैं और यह इस प्रकार लगता है जैसे पतझड़ में वसंत आ गया हो ।
इनहिं बिलोकत अति अनुरागा ।
बरबस ब्रह्म सुखहिं मन त्यागा ।।
प्रेम के भूख प्यास से पीड़ित भगवदरसिक जनोँ का तो उनकी मधु मुस्कान मधुर आहार है और इसका ग्रास पाकर वह जीते हैं ।
इस शुद्ध श्वेत विकारों से रहित हृदय की एकमात्र अभिलाषा यही है कि इस मनोहर छवि को प्रतिपल देखता ही रहे और एक क्षण को भी यह छवि हृदय से ओझल न हो ।
” मनहिं मन मनमोहन मन लाय ”
मनहिं मन मनमोहन मन लाय !
जब ते लखि सखि मन ते मोहन , अब नहिं पल बिसराय !
तरनि तनूजा तट मंह ठाड़ो , छबि त्रिभंग हरषाय !
उर फहरत पट पीत मनोहर , मुरली अधर लगाय !
वा लटकनि घुंघरारी लट की , उरझत उर सों हाय !
मधुर मधुर धुनि मुरलि बजावत , तन प्रानन लै जाय !
लखत “श्वेत” मन श्याम को झाँकी , “श्वेत” मनः कृष्णाय !
श्री श्वेताभ पाठक
भावार्थ :- एक प्रेम से पूरित गोपी कहती है की हे सखी ! अब मेरे मन ने अपने मन के अन्दर मनमोहन को बसा लिया है ! अर्थात निरंतर उनके प्रेम में डूबा रहता है और कृष्णमय हो चुका है !
जब से मैंने अपने अंतर्मन से उनकी छबि को निरखा है , एक पल भी उनकी छबि मन से ओझल नहीं होती अर्थात भूल नहीं पाती !
यमुना तट के नीचे एक वृक्ष के नीचे खड़े हुए , मुरली को अपने होठों से लगाये हुए एवं त्रिभंगी अवस्था ( तीन जगह से शरीर को टेढ़ा किये हुए ) में मैंने उन्हें देखा है !
ह्रदय / वक्षस्थल पर उनके मन मोहने वाला पीताम्बर फहर रहा है और उन्होंने मुरली को अपने होठों से लगा रखा है !
उनकी घुन्घरारी लट इतने सुन्दर तरीके से लटक रही है की उसमें मेरा ह्रदय उलझ गया है !
वह मनमोहन मधुर मधुर मुरली बजा रहा है जिससे मेरे प्राण तन के साथ उसी की ओर खिंचे चले जाते हैं !
उस अनुपम अद्वितीय झांकी और छबि का मैंने अपने शुद्ध ह्रदय से दर्शन किया है और उसके दर्शन के पश्चात अब मेरा श्वेत मन ( अर्थात शुद्ध मन ) कृष्णमय हो चुका है !
अर्थात श्यामसुंदर की छबि का दर्शन का आनंद केवल शुद्ध हृदय वाला जीव ही ले सकता है ! वरना अशुद्ध हृदय वाला जीव उनके सिर्फ भौतिक रूप का ही दर्शन कर पायेगा !
” कर्म दिव्य , जन्म दिव्य , श्याम अरु श्यामा !
जाने जो मरम जाए गोलोक धामा !!”
” बनो सब बगुला विहग समान “
बनो सब बगुला विहग समान !
ज्यों बगुला नित ध्यान लगावत , नेत्र मूँदि तनु तान !
बनु पाषाण एक पग ठाड़ो , नहिं जल कोउ व्यवधान !
जड़ चेतन सों भान लखत नहिं , ऐसोहिं बगुला ध्यान !
पर बगुला को लक्ष्य एक नित , जलहिं मत्स्य संधान !
सावधान हो करत प्रतीक्षा , जलहुँ मीन मिष्ठान !
करि संधान वेग ते मीन पै , अंतर्गत अभियान !
ऐसोहिं लक्ष्य मनुज इक केवल , आपुन इक कल्यान !
तनु ते कर्म करहुँ नित जग का , मन ते श्री भगवान !
तनहिं कार में , मनहिं यार में , यह हो अंतर ज्ञान !
कहत “श्वेत” बक इक दिन होइहैं , परमहंस प्रतिमान !!
श्री श्वेताभ पाठक
भावार्थ :- सभी व्यक्ति को बगुला पक्षी के समान होना चाहिए ! जैसे बगुला जब पानी में होता है तो ऐसा लगता है जैसे वह अपने शरीर को सीधा करके और आँख बंद करके ध्यान कर रहा है ! एक पैर पर खड़ा होकर वह पत्थर की तरह जड़ बना रहता है ताकि जल में कोई व्यवधान या हलचल न हो ! ऐसा लगता है उसे जड़ चेतन का कोई भी आभास नहीं हैं !
परन्तु बगुले का एक लक्ष्य हमेशा बन रहता है की वह जल की मछली को किस प्रकार शिकार करे ! इसीलिए वह सावधान होकर प्रतीक्षारत रहता है जब तक की कोई मछली उसके समीप न आ जाए और जैसे ही कोई मछली उसके पास आती है वह तेजी से अपने चोंच से वार करके उसे पकड़ लेता है !
ऐसे ही हर मनुष्य को संसार में प्रत्येक कार्य करते हुए अपने लक्ष्य पर धयन रखना चाहिए ! उसका एकमात्र लक्ष्य अपना कल्याण ही होना चाहिए ! तन और शरीर से संसार का कार्य करते हुए मन से भगवान् ( जो जीव का परम लक्ष्य है ) उसे ध्यान रखना चाहिए !
तन से संसार का कार्य करना है और मन को भगवान् में लगाना है यही एक आतंरिक ज्ञान हमेशा होना चाहिए !
ऐसा अगर कोई मनुष्य ऐसा करता है तो एक दिन अवश्य वह बगुला से परमहंस बन जाएगा ! अर्थात मन शुद्ध होगा एवं भगवद प्रेम की प्राप्ति होगी !
” सखि सुनु वह मुरली की तान “
सखि सुनु वह मुरली की तान !
परत सुनाई जब कानन मंह , धावत बिनु पद त्रान !
करि प्रवेश श्रवनन ते सुगमहिं , बेधि ह्रदय बनि बान !
करि संधान तान बानन ही , खींचत तनु ते प्रान !
धावत लोक लाजि तजि ऐसो , करत नहीं कछु भान !
कहत “श्वेत” वह मुरलि मधुर धुनि , रसिक रसहिं रसखान !
श्री श्वेताभ पाठक
भावार्थ :- एक भगवद प्राप्त और कृष्ण कृपा कटाक्ष से पीड़ित ब्रजांगना अपनी दूसरी उसी स्तर की रसिकलब्ध तत्ववेत्ता गोपी से कहती है कि हे सखी , वह मुरली की तान जब सुनती हूँ , तब मैं अत्यधिक व्याकुल हो जाती हूँ !
जब वह मधुर मुरली की धुन जब कानों में पड़ती है , ये कान मेरे शरीर को उसी तरफ खींचे चले ले जाते हैं , यहाँ तक कि मैं नंगे पैरों उधर ही दौड़ी चली जाती हूँ !
यह वंशी की मधुर ध्वनि सुगमता से कानों द्वारा प्रवेश करती है और मेरे हृदय को बाण बनकर बेंध देती है !
वह छलिया ऐसी मुरली बजाता है जैसे किसी ने बाण को धनुष पर संधान करके खींच दिया है और ऐसे खींचता है जैसे तन से प्राण खींचा जाता है !
उस मुरली की धुन सुनकर बिना किसी लोक लाज , समाज इत्यादि का सोच किये हुए ही मैं उधर दौड़ी चली जाती हूँ !
वह भगवदीय कृपा आलप्त एवं पूर्ण महापुरुष शुद्ध श्वेत तत्व्वेत्तीय गोपी कहती है कि हे सखी वह मुरली की मधुर ध्वनि रसिकराज श्रीकृष्ण के रस को प्रदान करने वाली रसों की खान है !
नोट :: मुरली की वह मधुर ध्वनि एकमात्र भगवदप्राप्त महापुरुष ही सुन सकता है ! मुरली की उस दिव्य ध्वनि को सुनने के लिए दिव्य कान भी चाहिए क्योंकि मायिक कानों से वह ध्वनि सुनाई नहीं दी जा सकती चाहे स्वयं श्रीकृष्ण कानों के पास ही आकर क्यों न मुरली वादन करें !
ब्रजमंडल में एकमात्र गोपियों को ( अर्थात भगवदप्राप्त तत्ववेत्ता रसिक महापुरुष) ही उनकी उस दिव्य ध्वनि का रसपान करते थे !
” यमुन तट ठाड़ो सुन्दर श्याम “
यमुन तट ठाड़ो सुन्दर श्याम !
बैठ्यो पग डाल्यो यमुना में , मन मोहन अभिराम !
पीत वसन तनु शीश मुकुट अरु , शोभित मुरलि ललाम !
कारे अनियारे घुँघरारे , केश उड़त बेकाम !
चंचल चितवन मधुमय मुसकनि , खींचत हिय अविराम !
मदमाती कजरारी अँखियाँ , करत काम नाकाम !
गुंजन करत भ्रमर नहिं छोड़ति , गुंजमाल सुखधाम !
श्वेत यमुन तट केहु जनि जइयो , दुस्सह होय परिणाम !
श्री श्वेताभ पाठक
” मन, इक दिन सब तोहिं तजेंगे “
मन, इक दिन सब तोहिं तजेंगे !
जा पै तू विश्वास करत नित , अंतस घात करेंगे !
सींचत नित नित मधुर दुग्ध ते , सो अतिविष उगलेंगे !
करत प्रदीक्षण निशिदिन जाकर , सो कहु और वरेंगे !
पल पल जापर समय गँवावत , सो तोहिं समय न देंगे !
सब धन जा पै लुटाय बढ़ावत , देख कै तोहिं जरेंगे !
शीश काटि चँह थार सजावहुँ , गंदी थार कहेंगे !
गरब करत जा तन यौवन को , इक इक पात झरेंगे !
जा हित करि नित श्रम बनि गर्दभ, गागर पीर भरेंगे !
परम मीत सम मानत जा ते , अरि सम सोई बनेंगे !
मीत जानि जेहिं गीत सुनावत , अरि बनि नृत्य करेंगे !
मात पिता स्त्री सुत मीता , इक इक करि बिछुरेंगे !
समय बीत इक दिन सब तो पै, तारी मारि हँसेंगे !
कहत “श्वेत” गहु श्याम शरण जोइ , सदा को साथ रहेंगे !
श्री श्वेताभ पाठक
” हम प्रेम नगर के वासी रे “
हम प्रेम नगर के वासी रे !
जहाँ रहत आनंद चन्द्र नित , बनकर पूरनमासी रे !
आनंद ते परिपूर्ण युगलवर , जा नगरी अधिशासी रे !
रंग रास उल्लास पुष्प नित , पुष्पित रहत सुहासी रे !
सलिल मेघ नित नैन आनंद जल , बरसत बारहमासी रे !
वादन, नादन, नर्तन, भाषन , होत सहज सुखरासी रे !
रिद्धि सिद्धि अरु भुक्ति मुक्ति सब , बनन चहत जहँ दासी रे !
करू प्रवेश जोइ “श्वेत” ह्रदय अरु , प्रेम सोम रस प्यासी रे !
श्री श्वेताभ पाठक