Shwet Discourses
(साधक प्रश्नोत्तरी)
मनुष्य का जन्म भाग्य से मिलता है या भगवान की कृपा से ?
उत्तर-मनुष्य का जन्म भगवान की कृपा से ही मिलता है । आप सभी को समझना होगा कि कृपा किसे कहते हैं ?
हमारे अनंत जन्मों के पाप और पुण्य कर्मों में से, प्रारब्ध में से भगवान ने कृपा करके हमें बुद्धि प्रधान मनुष्य देह देह दिया; यह सबसे बड़ी कृपा है भगवान की ।
कबहुँक करि करुणा नर देहि ।
देत ईश बिनु परम सनेही ।।
फिर किस वर्ण में जन्म मिला यह दूसरी कृपा भगवान की । किस कुल में जन्म मिला यह तीसरी कृपा भगवान की । किस जाति में जन्म मिला यह चौथी कृपा भगवान की । कौन से गुण के माता-पिता मिले, यह पाँचवीं कृपा भगवान की । कौन सी बुद्धि प्रधान या गुण प्रधानता मिली ( सात्विक, राजसिक, तामसिक ) यह छठी कृपा भगवान की ।
भगवान के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम में अनुराग या आकर्षण यह सातवीं कृपा भगवान की । मुमुक्षत्व की भावना होना या मैं कौन मेरा कौन, मेरा क्या उद्देश्य है इसका विचार होना, ज्ञान प्राप्ति की उत्कंठा, यह आठवीं कृपा भगवान की । और जो सबसे बड़ी कृपा है भगवान की, वह है किसी तत्व वेत्ता महापुरुष का संसर्ग प्रदान कर देना ।
बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं संता ।
अब आते हैं गुरु पर, गुरु कैसे कृपा करता है ?
गुरु तत्व ज्ञान देकर, मेहनत कर हमारी बुद्धि के जाले साफ करता है, गुरु सही-सही मार्ग बताकर, गाली खाकर भी जीव को सही तत्व दर्शन की ज्योति जगाता है । बार-बार हर प्रकार से, तरह-तरह के लीला कृत्य करके गुरु अपने जीव या शिष्य को भगवद मार्ग पर प्रशस्त करता है ।
कई बार शिष्य उसे दुत्कारता भी है और उसे ignore भी करता है लेकिन गुरु उस जीव पर कृपा कर उसका हाथ पकड़ कर उसका पतन नहीं होने देता । वह इस आशा में है कि कभी तो इसकी बुद्धि का विवेक जागृत होगा और वह फिर सन्मार्ग पर आएगा ।
गुरु रात-दिन परिश्रम कर तत्व ज्ञान करवाकर साधना करवाता है, उसके अन्तःकरण को शुद्ध करता है । गुरु ही उसे साधना मार्ग पर आने वाली कठिनाइयों से बचाते हुए आगे की ओर ले जाता है । फिर जब साधना कर उसका मन शुद्ध होता है तो गुरु ही प्रेम दान करता है जिससे मन बुद्धि में भक्ति का प्राकट्य होता है, फिर उसी भक्ति से अंततः उसे भगवद्प्राप्ति होती है ।
इसे कहते हैं कृपा ।
कोई गुरु किसी शिष्य को स्वयं भगवद्प्राप्ति नहीं करवा सकता । वह सिर्फ सही-सही मार्ग बताएगा, मार्ग में आने वाले अवरोधों से अवगत कराएगा और उससे निवृत्ति कराएगा लेकिन साधना उस जीव को ही करनी पड़ेगी । वरना नारद जी ध्रुव, प्रह्लाद को तप या साधना करने वन में न भेजते; वहीं भगवद्प्राप्ति करवा देते ।
गुरु केवल यही कृपा करेगा कि वह हमारे मस्तिष्क के जालों को साफ करेगा, मल-मल कर हमारे अंतःकरण को हमसे ही साफ करवाएगा जिसमें भगवान आकर निवास करेंगे ।
हमारे साथ जो कुछ भी होता है वह सब भगवान की इच्छा से होता है या जो कुछ भी हमारे आस-पास घट रहा है वह सब पहले से सुनियोजित होता है ?
उत्तर- भगवान एकमात्र कर्म करने की शक्ति प्रदान करते हैं । उस शक्ति को प्राप्त कर हम क्या करते हैं, यह हमारे ऊपर निर्भर करता है l जैसे- Powerhouse से बिजली मिल गयी है । अब हम उससे AC चलायें, कूलर, TV, fridge या हीटर जो चलाना हो चलायें और उसकी नंगी तारों को पकड़कर हम 0/100 भी हो सकते हैं । इसमें हम बिजली या powerhouse को दोष दें कि उसने ऐसा क्यों किया, तो यह हमारी अज्ञानता और ढीठता है ।
सब कुछ pre decided नहीं होता । बहुत कुछ Pre Decided होता है लेकिन यह हमारे ही पूर्वजन्मों के कर्मों के फलस्वरूप ही होता है ।
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ।
जो जस करहुँ सो तस फल चाखा ।।
काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता ।
निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ।।
सब अपने सुख-दुख के स्वयं उत्तरदायी हैं ।
जो न तरै भव सागर, नर समाज अस पाइ ।
सो कृत निंदक मंदमति, आत्माहन गति जाइ ॥
जो मनुष्य ऐसे सन्त समाज रूपी साधन पाकर भी भवसागर से तरने का प्रयास नहीं करता है या जन्म-मरण के चक्र से छूटने का प्रयास नहीं करता है, वह कृतघ्न, निंदनीय और मंदमति है । वह आत्मा का हनन करता है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है ।
सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि-धुनि पछिताय ।
कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय ॥
वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है और अपना दोष न समझकर (वह उल्टे) काल पर, कर्म पर या ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है । इसे सांसारिक क्षेत्र में भी ऐसा ही समझें ।
जयंती का अर्थ क्या है ? आदिशक्ति महामाया जगज्जननी का नाम भी जयंती है, तो क्या आपके हिसाब से इनकी मृत्यु हो चुकी है ?
जयंती का अर्थ होता है जिसकी विजय-पताका निरंतर लहराती रहती है। जिसकी सर्वत्र जय-जय है।
ये किसने कह दिया कि जयंती मरे हुए लोगों की होती है ? मरे हुए लोगों की “पुण्यतिथि” होती है।
“जयंती” शब्द का अर्थ है जिनका यश, जिनका जय, जिनका विजय अक्षुण्ण है, नित्य है, यानी सदा विद्यमान है l जयंती महापुरुषों की या भगवान की ही होती है । नश्वर शरीर धारियों के लिए जयंती नहीं है । जिनकी कीर्ति, यश, सौभाग्य, विजय निरंतर हो और जिसका नाश न हो सके, उसे जयंती कहते हैं।
ये कौन से शास्त्र में है, मतलब यह कि पाणिनि के किस व्याकरण से आप लोगों ने यह अर्थ लगाया कि जयंती मरे हुए लोगों की होती है ? अरे, आज के युग में भी आप अपने माता-पिता या किसी जीवित महापुरुष के 25 वर्ष विवाह, सन्यास या साक्षात्कार दिवस के पूर्ण होने पर मनाते हैं न, तो क्या माता-पिता मर गए या उस महापुरुष की मृत्यु हो गयी ?
रजत जयंती, स्वर्ण जयंती, हीरक जयंती में क्या सब मर जाते हैं ? जयंती का प्रयोग मुख्यत: किसी घटना के घटित होने के दिन की, आगे आने वाले वर्षों में पुनरावृत्ति को दर्शाने के लिये किया जाता है।
हनुमान जी की कीर्ति, यश, विजय पताका, भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, जय निरंतर और नित्य है, इसलिये इनकी जयंती मनाई जाती है। ऐसे ही नृसिंह जयंती, वामन जयंती, मत्स्य जयंती इत्यादि भगवान के सभी अवतारों की जयंती मनाई जाती है l तो मुझे यह प्रमाण लाकर दिखा दें जहाँ इन अवतारों के मृत्यु का वर्णन है ।
जयंती मृत्यु से नहीं, उनके नित्य, सदा विद्यमान, अक्षुण्ण, कभी न नष्ट होने वाली कीर्ति और जयत्व के कारण मनाई जाती है, चाहे वह जन्म हो या मृत्यु। महावीर जयंती, बुद्ध जयंती, कबीरदास जयंती, गुरुनानक जयंती इत्यादि सभी उनके जन्मदिन ही हैं। जयंती का किसी भी तरह जन्म और मृत्यु से कोई सम्बंध नहीं है।
जन्मोत्सव साधारण लोगों का मनाया जाता है, लेकिन “जयंती” शब्द विराट् है, वृहद है और यह मात्र दिव्य पुरुषों का ही मनाया जाता है ।
कृपया Whatsapp ज्ञान से बचें । हाथ जोड़कर विनती है ।
बस एक यही कारण रहा कि हमारे शास्त्रों का भी ऐसे ही अर्थ का अनर्थ किया गया और हमने बिना जाने समझे बस उसको प्रसारित और प्रचारित करने लगे। कृपा करके ऐसे प्रचारित पोस्ट्स से बचें और शास्त्रों का अवलम्बन लें वरना बनाते-बनाते सब बिगड़ जाएगा ।
लोग नशा क्यों करते हैं ? इसका क्या कारण है ? और आप किस तरह से एक अच्छे आध्यात्मिक शिक्षक का चयन कर सकते हैं?
उत्तर- लोग नशा क्यों करते हैं ??
आईये जानते हैं इसके विषय में। इसको समझने के लिए हमें वेदों के मूल में चलना होगा।
वेदों में ? जी हाँ, वेदों में ।
वैदिक सिद्धांत के अनुसार :- विश्व का प्रत्येक जीव एकमात्र आनंद चाहता है, आनंद के सिवा वह कुछ नहीं चाहता और उसी आनंद को पाने के लिए वह निरंतर कर्म करता है।
मनुष्य के शरीर में कई प्रकार की ग्रंथियाँ या glands होते हैं जिनसे विभिन्न प्रकार के जैविक रसायन या Biochemicals या Neurochemicals निकलते हैं । यही chemical मनुष्य या किसी भी जीव में भावना पैदा करते हैं।
डर, खुशी, दुःख, प्रेम, ईर्ष्या, आराम, नींद, क्रोध, बल, हताशा, निराशा तथा अवसाद से लेकर अनगिनत जितनी भी भावनाएँ आपको किसी भी जीव में दिखाई पड़ती हैं, सब इन्हीं Biochemicals का कमाल होता है । साधारण शब्दों में समझिये- यही आपके mood को निर्धारित करते हैं । कब कौन सा हॉर्मोन निकलना है, सब इन्हीं पर निर्भर करता है ।
ये biochemichals क्या होते हैं ? ये कुछ रासायनिक mixture वाले द्रव्य होते हैं जो विभिन्न प्रकार के जैविक तत्वों से बने होते हैं, जैसे protiens, amino acids, peptides, कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, तमाम तरह के neuro peptides जिनकी संख्या हमारे विज्ञान में मात्र 100 (क्योंकि इसके ऊपर बिचारे अभी खोज नहीं पाए हैं) और शास्त्रों में हज़ारों के आसपास बताई गई है।
यही सब जैविक तत्व समान, आसमान, सम, विषम संख्या में आपस में जुड़कर neurochemicals का निर्माण करते हैं। ये सब neurochemicals दिमाग़ में बनते हैं और पूरे शरीर से लेकर पूरे समाज और देश को प्रभावित करते हैं। इन neurochemicals का एक निर्धारित मात्रा सभी मनुष्यों में विभिन्न प्रकार से होता है और इनकी मात्रा 1 से 10 gm तक ही काफी है जो पूरे जीवन भर किसी मनुष्य के शरीर को चलाने के लिए काफी है।
कौन सा nurochemicals बनना है, कैसे बनना है, कितना बनना है और कब बनना है, यह सब आपके रहन-सहन, खान-पान पर निर्भर करता है। इसीलिए वेदों में अन्न को ब्रह्म बोला गया है और खाद्य-अखाद्य पर या क्या खाना चाहिए, क्या नहीं खाना चाहिए, कब खाना चाहिए, कितना खाना चाहिए इत्यादि पर बहुत विस्तृत लिख कर जोर दिया गया है।
अब क्या होता है ये जितने भी मादक द्रव्य या नशे की वस्तुएं हैं जैसे दारू, गुटखा, Cigarette, बीड़ी, तम्बाकू, drugs इत्यादि इन सबको लेने पर यह शरीर में से जबरदस्ती उस neurochemicals का स्त्राव या secretion करती है या जैसे थन से दूध दुहा जाता है उसको निकालती है जिससे मनुष्य आनंद की अनुभूति करता है या किसी भी भावना की अनुभूति जबरदस्ती करने लगता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि अमुक मादक द्रव्य ने कौन से Receptor को irritate या कौन से gland को कौन सा chemical release या निकालने के लिए उस पर pressure बनाया है।
कुछ neurochemicals हैं:- Dopamine, adrenaline, Oxytocin, Serotonin, Gaba, Endorphin, Endocannibanoids इत्यादि ये सब Basal Ganglia, Caudate Nucleus, Putamen इत्यादि से निकलते हैं। इन सभी Neurochemicals को Neurochemicals ऑफ Happiness भी बोला जा सकता है। जैसे शराब से ऐसे neurochemicals निकलते हैं जो आदमी को थोड़ा सुख देते हैं l तरह तरह के ड्रग्स से ऐसा लगता है जैसे वह कहीं किसी और दुनियाँ में है, कहीं उड़ रहा है, कहीं मजे कर रहा है, इतना confidence आ जाता है जैसे वह स्वयं भगवान हो, वह सबसे ताकतवर हो, उसके सब दुख खत्म हो गए इत्यादि ।
यह सब अवस्थायें या भावनायें मनुष्य के जीवन को चलाने के लिए अति आवश्यक हैं और इनके बिना मनुष्य एक शव के समान है। यह प्राकृतिक रूप से शरीर को कब कैसे कितनी मात्रा में निकालना है, वह सब प्रकृति अपना करती रहती हैं। लेकिन जो नशा करता है या ऐसे मादक द्रव्यों का सेवन करता है वह इन मादक द्रव्यों द्वारा शरीर से जबरदस्ती यह सब neurochemicals निकालता रहता है और आनंद लेता रहता है। फिर कुछ समय बाद ऐसा होता है कि जब तक External Force नशीली चीजों द्वारा न लगाया जाए, यह केमिकल नहीं निकलते और जब यह नहीं निकलते तो आदमी को दुख का आभास होता है।
इसे ऐसे समझिये जैसे घड़ा बूँद-बूँद कर भर रहा होता है तो घड़े से पानी overflow करता रहता है। लेकिन कोई घड़े से जबरदस्ती पानी निकाल ले तो फिर Overflow बन्द हो जाएगा और तब तक नहीं overflow करेगा जब तक घड़ा बूँद-बूँद से दुबारा न भर जाए।
तो इसी दुख को मिटाने के लिए या दुख में सुख वाला hormone मिलाकर normal होने के लिए वह drugs या शराब दुबारा माँगता है और जब नहीं मिलता तो पागल हो जाता है।
जो दारू पीते हैं, इसका अर्थ सीधा लगा लेना चाहिए कि बिचारे के जीवन में सुख पाने का और कोई साधन नहीं है l इसीलिए वह जबरदस्ती अपने शरीर के हॉर्मोन्स को निचोड़ कर निकाल रहा है।
पहले एक दिन नशे की चीज़ थोड़ा सेवन करेगा । थोड़ी मात्रा से केमिकल निकल जाता है, फिर थोड़ा और बढ़ाएगा क्योंकि पहली वाली मात्रा से केमिकल नहीं निकला, फिर बढ़ाते-बढ़ाते वह peak पर पहुंच जाता है।
जैसे कूआँ का पानी है । पानी कम होता जाएगा तो हमें अपनी रस्सी बढ़ानी पड़ती जाएगी।
लेकिन एक समय ऐसा आता है जब यह chemical इतना निचोड़ लिया जाता है कि पूरा खत्म हो जाता है और तब उस नशेड़ी व्यक्ति के पास अपने दुख को कम करने के लिए आत्महत्या के अलावा और कोई साधन नहीं रह जाता।
आपने देखा होगा कि drugs का सेवन करने वाले या अत्यधिक शराब पीने वाले, Cigarette, बीड़ी, तम्बाकू, चरस, गांजा का सेवन करने वाले अंत में depression का शिकार होकर आत्महत्या कर लेते हैं।
क्यों ? क्योंकि वह अपने इस Happiness वाले hormones या chemicals को शरीर में से इतना निचोड़ चुके होते हैं कि सब केमिकल खत्म हो जाता है और इस chemical के बिना किसी मनुष्य क्या किसी जीव का अस्तित्व असंभव है। इस Chemical को शरीर से निकालने के लिए वह लड़ाई-झगड़ा, परिवार से कलह, बीवी से मारपीट, समाज से अलग तक हो जाता है।
जिनके जीवन में आध्यात्मिक रस या आनंद नहीं है । जिन्होंने कभी उस आत्मिक आनंद को चखा ही नहीं होता है, वह जल्दी नशे के शिकार होते हैं । जो शराब पीता हो, तो समझ जाईये कि उसके जीवन में धर्म, अध्यात्म, और सही मार्ग का अभाव है, उसका जीवन पूरी तरह नीरस है ।
ये hormones या chemicals कैसे निकलते हैं, इसका बहुत बड़ा विज्ञान है। यहाँ नहीं समझा सकता बस brief में समझ लीजिए कि ध्यान, meditation, भगवान का संकीर्तन, व्रत, उपवास, धार्मिक अनुष्ठान, वैदिक मंत्रों के उच्चारण, नित्य व्यायाम, विपश्यना, संगीत, नृत्य, खेल, प्रकृति के सान्निध्य में रहने, नहाने, तरंगों, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रों या रत्नों के प्रकाश, तरह-तरह के प्राकृतिक सुगंध सूंघने इत्यादि से ये chemicals body में प्रचुर मात्रा में बनते और स्त्रावित होते हैं।
इसीलिए कृपया अपने अपने स्वजनों को आत्महत्या के शिकार होने से बचाइए या अवसाद में आने के बाद जिन रोगों द्वारा उनके शरीर का तहस-नहस होगा, उससे उनको बचाइए।
बस एक नशा करिये उस भगवद क्षेत्र का, उस अद्वितीय प्रेमरस का फिर अन्य कोई नशा चढ़ेगा ही नहीं आप पर।
तुझे नशा है दुनियाँ का, मुझे है दुनियाँ वाले का।
मेरा माशूक साकी है, तू आशिक खाली प्याले का।।
वे बेचारे दारू में अपना जीवन इसलिए डुबा रहे हैं क्योंकि कोई और रस उनके जीवन में नहीं बचा है या वह बेचारे जानते नहीं हैं। अगर किसी एक नशा करने वाले व्यक्ति या दारूबाज व्यक्ति को यह लेख समझ में आ जायेगा तो मेरा लिखना सार्थक हो जाएगा।
पाप की शुरुवात जीवन में कैसे होती है ? व्यक्ति बचपन में अपने परिवार के सदस्यों को यदि पाप कृत्य करते हुए देखता है तो उसमें पाप करने की वृत्ति स्वतः आ जाती है जिसका उसको पता भी नहीं होता । इसमें उसकी क्या गलती है ?
उत्तर- इसीलिए तो गीता में भगवान ने कहा है कि अर्जुन जन्म का होना भी बहुत बड़ा सौभाग्य है और दुर्लभ है । कौन किस अवस्था में, कौन से देश में, कौन से कुल में, कौन से वर्ण में, कौन से परिवार में, कौन से माँ-बाप से जन्म लेता है, यह भी सब कर्मों के ऊपर निर्भर करता है ।
इसीलिए कर्मों पर विशेष ध्यान रखना चाहिए । बाकी के पूर्व जन्मों की साधना और प्राप्य विवेक, पुण्य और पाप में अंतर बुद्धि में स्वयमेव बिठा देता है ।
आपने देखा होगा कि-
एक पिता के बिपुल कुमारा, होहिं पृथक गुन सील अचारा ।।
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता, कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ।।
एक भाई संत प्रवृत्ति का होता है और दूसरा भाई आपराधिक प्रवृत्ति का, तो यह सब पूर्व जन्मों की साधना एवं संस्कार का परिणाम होता है ।
जैसे प्रह्लाद की साधना का ही फल था कि हिरणकश्यप जैसे असुर पिता के होने पर भी, असुर बालकों के संग खेलने और रहने पर भी, असुर गुरुओं द्वारा भगवान के विरोध में बातें सुनने के बाद भी वह इन सबसे निर्लेप रहे ।
यह रविदास जी की साधना का ही फल था कि चमार जाति में जन्म लेने के पश्चात भी भगवद्भक्ति कूट-कूट कर भरी थी । वहीं उनके जाति के लोग मांस भक्षण, अशुद्धता, मद्यपान इत्यादि करते थे और वहीं दूसरी ओर रविदास जी निरन्तर भगवद्भजन में संलग्न रहते थे । इसी कारण हज़ारों ब्राह्मणों ने उनसे दीक्षा ली, भक्त मीराबाई, झालाबाई इत्यादि उनकी शिष्या बनी, स्वयं वहाँ के राजा और रानी ने उनको गुरु रूप में स्वीकारा ।
इसलिए जन्म का होना भी सौभाग्य और दुर्भाग्य है ।
हम जो भी कर्म करते हैं वह ईश्वर ने पहले से ही तय कर रखे हैं क्या ? जब ईश्वर ने सबके कर्म पहले से तय कर रखे हैं तो भाग्य का क्या मतलब है ? इंसान अपनी इच्छा से सब कुछ करता है या भगवान जो करवाते हैं वह होता है ?
उत्तर- नहीं । भगवान ने एकमात्र हमें बुद्धि दी है और तीन गुण दिए हैं- सत, रज, तम । इन्हीं गुणों के अधीन रहकर ही प्रत्येक जीव कर्म करता है ।
यह सत, रज, तम गुण आपके परिवेश, संगति, आचरण, नियम, संयम, ज्ञान, वैराग्य, सत्संग, खान-पान इत्यादि पर निर्भर करता है । हत्यारे के साथ रहेंगे तो तमस गुण से प्रभावित होंगे और आप अपने कृत्य के लिए भगवान को दोष देंगे तो वह मान्य नहीं है ।
भगवान ने मात्र आपको कर्म करने की शक्ति और चैतन्यता प्रदान की है, कर्म करने की स्वतंत्रता आप की है । ईश्वर ने जो कर्म लिखे हैं वह तो होना ही है लेकिन ईश्वर ने जो लिख दिया उसको हम अपने कर्म के आधार पर उसके प्रभाव को कम ज्यादा कर सकते हैं l
भाग्य हमारे कर्म के आधार पर बदलता रहता है l हम जैसे कर्म करते हैं भविष्य के लिए वैसे ही हमारा भाग्य बनता रहता है l यह ठीक वैसे ही है जैसे हम आज आम का पेड़ लगाएंगे तो 8 साल बाद या 10 साल बाद हमें फल खाने को मिलेगा l
अच्छे लोगों के साथ हमेशा बुरा क्यों होता है ?
उत्तर- आप गलत व्यवहार करने वाले को तभी देखते हैं या वह तभी नज़र में आता है जब वह सुख भोग रहा होता है । जब वह दुःख भोग रहा होता है, तब आप उसे छोटा आदमी समझते हैं या धार्मिक व्यक्ति समझते हैं क्योंकि तब वही गलत व्यक्ति अपना दुःख कम करने के लिए धार्मिक बनने लगता है ।
यही देखकर कबीरदास जी ने कहा था-
दु:ख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।।
लेकिन जब अच्छा प्रारब्ध भोग रहे होते हैं तो मद में होते हैं, अहंकार में होते हैं, वह सोचते हैं कि यह सदा रहेगा । यही जब अच्छा प्रारब्ध खत्म होता है तब यही अपना दु:ख कम करवाने के लिए ज्योतिष, पण्डित, पूजा-पाठ की ओर भागते हैं लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ।
धार्मिक व्यक्ति या जो भगवद मार्ग पर चलने लगता है भगवान जानते हैं कि अब इसको कोई फर्क नहीं पड़ेगा तो भगवान उसे उसके समस्त बुरे प्रारब्ध जल्दी-जल्दी भोगवाना शुरू करते हैं कि इसी जन्म में जल्दी-जल्दी सब खत्म हो जाये ।
और दूसरी बात जब सब पर दुःख पड़ता है तो सब अपने आपको बहुत अच्छा समझने लगते हैं कि हमने तो किसी का कुछ नहीं किया तब भी ऐसा हो रहा है । हम बहुत धार्मिक हैं या आध्यात्मिक हैं और दूसरे को खराब बताने लगते है कि वह देखो वह बहुत सुखी है बल्कि वह तो ऐसा है ।
परदोष दर्शन करके हम अपने मन से भगवान के सामने victim card खेलने का प्रयत्न करते हैं । लेकिन वह भगवान है, कोई भारत का कानून नहीं । वह सब जानता है और प्रकृति को किसको कब क्या देना है, वह जानती है और देती है । बस हमें विक्टिम कार्ड खेलना बन्द करके यह स्वीकार करना है कि जो हम भोग रहे हैं सब हमारे पूर्वकृत कर्मों का ही प्रारब्ध है और तेजी से भगवद भजन में जुट जाना चाहिए ।
पाप और पुण्य किसे कहते हैं ? दोनों में क्या अंतर है ?
उत्तर- धर्म विरुद्ध कार्य करना पाप है और धर्म के अनुसार कार्य करना पुण्य । जो आपके लिए धर्म है वही दूसरे के लिए अधर्म है । जो आपके लिए पुण्य है वही दूसरे के लिए पाप है । यह पाप और पुण्य एकमात्र हमारी संस्कृति और हमारे शिक्षा-दीक्षा के अनुसार होता है ।
आत्मा का धर्म है परमात्मा की प्राप्ति, बस यही लाना था आप सबको ।
भगवान को छोड़कर किये गए सभी कर्म पाप की श्रेणी में आता है एवं भगवान के निमित्त किये गए सभी कर्म पुण्य की श्रेणी में आता है । जितने क्षण मन भगवान में लग रहा है, वह पुण्य हो रहा है । जितने क्षण मन संसार में लग रहा है या लौकिक कार्यों में लग रहा है, वह सब पाप की श्रेणी में आता है ।
अब स्वयं हम सब आकलन कर लें कि हम कितना कमाते हैं और कितना गंवाते हैं और हमारी स्थिति क्या है ।
नींद को कम करके 2 घंटे पर कैसे लाये ?
उत्तर- नींद को शून्य पर केवल सर्वोच्च कक्षा के साधक ही ला सकते हैं ।
नींद शरीर के Cells को energise करने का कार्य करती है । 6 से 8 घण्टा नींद सामान्य मनुष्य के लिए होता है लेकिन अगर इससे ऊपर होगा तो वह व्यक्ति तामसिक वृत्ति से ग्रसित है, उसे अपने भोजन शैली के साथ-साथ अन्य इन्द्रियों की वृत्ति को ध्यान देने की आवश्यकता है ।
जितना आप तामसिक भोजन करेंगे उतनी ही ज्यादा नींद आएगी और यह नींद समय पर नहीं बिना समय के आएगी । अगर नींद में व्यवस्था नहीं है या उसमें symmetry नहीं है तो सावधान हो जाएं और नियम, संयम, भोजन से लेकर सब पर सुधार करें ।
उच्च साधकावस्था में क्या होता है कि मात्र आधे घण्टे या 15 मिनट या घण्टे दो घण्टे की नींद से ही वह अपने सभी Brain cells और अन्य cells को energise कर लेते हैं । आप हमेशा देखेंगे कि सात्विक व्यक्ति को नींद बहुत कम आएगी और उस पर उनका control रहेगा । जैसे- अर्जुन को भगवान गुडाकेश कहते थे । क्यों ? गुडाकेश का अर्थ होता है जिसने नींद पर विजय प्राप्त कर ली हो ।
साधक जब उच्च अवस्था में पहुँचता है तो वह अपनी तामसिक वृत्तियों को कम करते-करते खत्म तक कर सकता है । संत-महापुरुष चाहे सोयें या न सोयें उन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । हाँ, आम लोगों को दिखाने के लिए वह सोने का अभिनय करेंगे ।
वैसे नींद पर विजय प्राप्त करने में ध्यान बहुत सहायक होता है लेकिन जो भक्त हैं वह भगवान के रस में ही इतने डूबे रहते हैं कि उन्हें नींद का भान नहीं होता ।
जैसे जो समाधि में या यौगिक अवस्था में या जो भक्त रूप ध्यान या लीला माधुरी में होता है, वह वर्षों तक उसी अवस्था में रह सकता है बिना नींद, भोजन इत्यादि के । वह अपने प्राण को शरीर से सीमित कर एक जगह स्थित कर देते हैं जिससे शरीर की metabolic activities इतनी मन्द हो जाती है कि ऊर्जा की खपत कम से कम हो । शरीर भले पूरा सूख जाता है लेकिन प्राण एक ही जगह स्थित रहेगा और शरीर की ऊष्मा वह अपनी metabolic activity से नहीं बल्कि प्रकृति के सूक्ष्म उर्जात्मक प्रणाली से ग्रहण करना शुरू कर देता है । इसलिए उसको नींद, भोजन, मल-मूत्र विसर्जन तक की भी आवश्यकता नहीं पड़ती वर्षों तक l
स्वभिमान एवं अभिमान क्या है? अभिमान तो नही होना चाहिए और स्वाभिमान होना चाहिए या नहीं ?
स्वयं को शरीर न मानना बल्कि आत्म तत्व से सदा सिंचित रहना ही स्वाभिमान है ।
अभिमान शरीर एवं शरीर से सम्बंधित तत्वों को लेकर आता है लेकिन स्वाभिमान स्व अर्थात आत्मा को लेकर आता है ।
आत्म तत्व में स्थित होना और उसे जानना फिर उसके अंतर्गत कार्य एवं अनुभव करना ही स्वाभिमान है ।
यह आत्मा को अभिमान होना चाहिए कि मैं उसका अंश हूँ ।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी ।
चेतन अमल सहज सुख राशी ।।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
स्वाभिमान और अभिमान में एक अंतर यह है कि स्वाभिमान स्वयं का सम्मान करता है और अभिमान दूसरों का सम्मान नहीं करने देता ।
स्वाभिमान स्वयं को बेइज्जत नहीं होने देता और अभिमान दूसरों की इज्जत करने नहीं देता ।
स्वाभिमान एक अनिवार्य तत्व है और प्रत्येक मनुष्य में होना चाहिए । इसके होने से व्यक्ति में आत्मचेतना बनी रहती है ।
अभिमान बाह्य तत्व है जो मनुष्य को विनम्रता से दूर करती है। विनम्रता दूर होने से ज्ञानार्जन में बाधा आती है जिससे अज्ञान का अधिपत्य होते होते व्यक्ति की महती हानि होती है ।
हालांकि कुछ जगह अभिमान का होना भी आवश्यक पाया जाता है ।
हम सभी लोग भगवान की निष्ठा भाव से पूजा करते हैं फिर भी हम लोग दुःखी हैं, परेशान है, गरीब हैं जबकि विदेशों के लोग बिना किसी भगवान की पूजा किए बिना प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे?
ये पाप-पुण्य, बुरा-अच्छा सब ब्रह्म है। सब भगवान हैं और उन्हीं की शक्ति है।
जो जिस भाव से उनको चाहेगा, वह उसी भाव से उसे मिलेंगे।
कोई पापी पाप और पीड़ा को चाहता है या उसी रूप में भगवान को चाहता है तो उस पापी को पाप और पीड़ा के रूप में ही भगवान मिलेंगे।
जो तामसिक पूजा करता है, उसे तामसिक फल प्राप्त होगा ।
जो राजसिक करता है, उसे राजसिक फल मिलेगा ।
जो सात्विक करता है उसे सात्विक फल मिलेगा ।
जो इन तीनों गुणों से परे होकर करता है , उसे गुणातीत फल ही प्राप्त होगा ।
तो इसी प्रकार जिसने भगवान से भोग ही भोग माँगा है , उन्हें भोगवादी संस्कृति में भोग भोगने के लिए जन्म मिलता है ।
पश्चिम मात्र भोगवादी स्थान है, वहाँ जन्म लेने वाले व्यक्ति एकमात्र भोगवादी प्रवृत्ति के होते हैं । वह देह तक ही अपनी बुद्धि रखते हैं ।
देह से ऊपर वह नहीं जा पाते ।
जो देह से ऊपर जाना चाहते हैं , वह भारत आकर बस जाते हैं वृन्दावन , अयोध्या , काशी , ऋषिकेश इत्यादि अनेक स्थलों पर ।
पश्चिम एकमात्र अपने शरीर तक ही सीमित रहते हैं । वह शरीर के सुख की पूर्ति के लिए ही सभी अविष्कार और मेहनत करते हैं । उनके लिए EAT , BOOZE , SEX AND SLEEP के अलावा वह कुछ नहीं जानते ।
इसलिए वहाँ के 11 वर्ष की लड़कियाँ अपना गर्भपात कई बार करवा लेती हैं और लड़के लड़कियों में कोई मर्यादा नहीं होती ।
वह अपना जीवन पशुवत जीते हैं ।
उन्हें आंतरिक आनंद का कोई आभास नहीं होता ।
जिसको आभास होता है वह पूर्व अर्थात हमारी ओर भागता है ।
तो पश्चिम को भोगवादी स्थान कहा जाता है जहाँ पर आपके किये गए कर्मों को भोगवाने के लिए ही भेजा जाता है ।
उनका आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं ।
यह बात पूर्णतः गलत है कि वह लोग दुःखी नहीं है । यह बहुत ही बड़ा अज्ञान है ।
क्योंकि हम वही देखते हैं जो अच्छा अच्छा वह post करते हैं ।
वह इतने दुखी रहते हैं कि आनंद की खोज में उनके एक नहीं हज़ारों sex partner होते हैं । नाली तक में वह यह सब कार्य कर लेते हैं, यह क्यों ? क्योंकि उनको आनंद नहीं मिल रहा है तो वह हर जगह मुँह मारते हैं ।
उनको ऐसी अशांति व्याप्त रहती है कि ये Mental Hospital का concept उन्हीं की देन है । यह बड़े बड़े Hospitals , वृद्धाश्रम , इत्यादि उन्हीं की देन है ।
उनके यहाँ 12 वर्ष का बच्चा इतना अधिक tension में होता है कि वह बन्दूक लेकर अपनी अशांति हटाने के लिए एक साथ 50 लोगों को भून देता है ।
उसी शांति की खोज के लिए वह सब भारत आते हैं ।
क्योंकि एकमात्र यही वह देश है जहाँ कल्याणपरक शिक्षा है, आत्मिक आनंद के विषय में बताया जाता है, शरीर से ऊपर के तत्व की बातें होती हैं ।
वहाँ तो वह अपना सब भोग भोगकर कर्मों का बैंक बैलेंस खत्म कर फिर से नारकीय योनियों में जाते हैं ।
लेकिन यहाँ ज्ञान प्राप्त कर अपना कल्याण कर उच्चतर स्थिति प्राप्त कर सकते हैं ।
इसलिए ऐसा कहा गया है कि भारत वर्ष में जन्म लेने के लिए देवता भी तरसते हैं ।
क्योंकि देवता भी भोग भोग रहे हैं । भोग खत्म होने के बाद फिर से गधे बिल्ली सुवर बनेगे और विष्ठा खाएंगे ।
लेकिन जो यहाँ इस देश में जन्मा है , वह कभी न कभी किसी महापुरुष पर विश्वास कर या शास्त्रों की बातों पर विश्वास कर साधना करेगा और इन सभी मायिक तत्वों से परे होकर परम् आनंद की प्राप्ति कर लेगा ।