भज गोविंदं भज गोविंदं
गोविंदं भज मूढ़मते।

भज गोविंदं भज गोविंदं
गोविंदं भज मूढ़मते।
मंदिर का अर्थ:-

हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
ईशावास्यमिदं सर्वं।

वह सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है। ऐसा नहीं है कि उनकी शक्तियाँ या वह कहीं कम, कहीं ज्यादा व्याप्त है। जो भगवान कुत्ते में व्याप्त हैं, वही भगवान समान रूप से हाथी में, चीटीं में, पापी में, पुण्यात्मा में, मन्दिर के देवालय में और वही भगवान मल-मूत्र के कण-कण में भी व्याप्त हैं।
ये जो मन्दिर है वह भगवान के लिए नहीं होता है। वह होता है हम जीवों के लिए ताकि हम अपने मन को केंद्रित कर भगवान में लगा सकें।
लोग सोचते हैं कि मन्दिर भगवान का होता है, यही सबसे बड़ा अज्ञान है।
बहुत लोगों को मेरी बात से ठेस लगेगी, लेकिन यही सत्यता है कि मन्दिर भगवान-बगवान के लिए नहीं होता बल्कि हम मायिक जीवों के लिए होता है।
मन्दिर का अर्थ होता है मन+स्थिर – अर्थात जहाँ मन को स्थिर किया जाता हो या जो मन को स्थिर या एकाग्र करने में सहायक हो।
सतयुग में कोई मन्दिर नहीं हुआ करता था। क्योंकि सभी ब्रह्म ज्ञानी थे, जितेंद्रिय थे और मुनि थे। मुनि का अर्थ है जिसका मन पर नियंत्रण हो।

ज्यों-ज्यों समयावधि बढ़ी, काल ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया और लोगों पर माया या अज्ञान ने अपना आधिपत्य करना शुरू किया तब गुरुओं, संतों, महापुरुषों ने मन्दिर की परिकल्पना को साकार रूप देना शुरू किया। पहले तो कोई मूर्ति पूजा तक नहीं थी क्योंकि किसी को ध्यान लगाने के लिए support की आवश्यकता नहीं पड़ती थी।
फिर शिवलिंग से शुरुआत हुई।
शिवलिंग क्या है ?
यह ध्यान की प्रक्रिया है। शिवलिंग की स्थापना गुरुकुलों में होती थी ताकि विद्यार्थियों को दिखाया जा सके कि तुम्हें यही शिवत्व प्राप्त करना है। जब आप ध्यान-साधना की प्रक्रिया से अपनी आत्म-ज्योति को उर्ध्वाकार करते हैं तो आप सहस्त्रार को पार कर जाते हैं। जैसे ही यह अवस्था प्राप्त होगी, वैसे ही परम आनंद या अमृत या रस निरंतर तैलधारावत् आपके ऊपर गिरने लगेगा और आप शिवोहम् शिवोहम् हो जायेंगे। इसीलिए आपने देखा होगा शिवलिंग पर हमेशा एक कलश में दूध भरकर या गंगाजल भरकर निरंतर टपकाया जाता है। तो यह प्रतीक है दर्शाने के लिए कि हमें उसी शिवत्व और आनंद को प्राप्त करना है।
आज जितने लोग भगवान पर जल चढ़ाते हैं या दूध चढ़ाते हैं किसी को भी नहीं पता कि यह क्यों चढ़ाते हैं ?
बोलते हैं शिव जी को पसंद है।
अरे! जो उस परम अमृत अजस्त्र धारा का निरंतर पान कर रहा है उसे यह मायिक दूध पसंद होगा ?
खैर हम टॉपिक पर आते हैं। तो धीरे धीरे ध्यान में जब भगवान का रूप आना बंद हो गया तब मूर्ति को साकार रूप दिया गया ताकि इसे देखकर मायिक मन से लोग रूपध्यान बनाने लगे और अपना कल्याण करें। लेकिन होता यह है कि हम सभी मूर्ति तक सीमित रह जाते हैं और मायिक मूर्ति से दिव्य मूर्ति तक पहुँचने की क्रिया पर विराम लग जाता है।
मूर्ति मात्र helper है, सहायक है ताकि हम रूपध्यान कर सकें, क्योंकि हमने भगवान को कभी नहीं देखा और इस मायिक मन बुद्धि से देख क्या सोच भी नहीं सकते l इस प्रकार यह सब मन को एकाग्र करने का केंद्रीकृत करने का साधन मात्र है। मूर्ति साधन है साध्य नहीं। हमारा साध्य भगवान की दिव्य छवि है जो हम मूर्ति की सहायता से प्राप्त करते हैं। जैसे कोई मकान का एक छोटा sample बना कर दे कि इसी तरह मकान बनना है। राम मंदिर की पहले प्रतिकृति बनी फिर राम मंदिर उसी आधार पर बनेगा। लेकिन कलियुग में अक्सर लोग सैंपल और प्रतिकृति को ही मूल घर समझ लेते हैं और जीवन भर उसी में लगे रहते हैं।
तो बुद्धि को पहले सिद्धांत से पुष्ट करना पड़ता है तब यही बुद्धि मन को आदेश करती है। बुद्धि पुष्ट नहीं होगी तो मन भटकेगा ही भटकेगा। बुद्धि और मन को मिलाकर शास्त्रों में इसे मन ही कह दिया गया है।

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