होली
आजकल होली बस चोली भिगोने तक सीमित रह गयी है । देवर-भाभी की छेड़छाड़, रंग लगाने का प्रचलन और भोजपुरी गानों की अश्लीलता भरे एल्बम, भंग, शराब, गाँजा, अभद्रता इत्यादि ने होली के रूप को और भी वीभत्स कर दिया है।
आजकल के तथाकथित कवि भी अभद्र, अमर्यादित कविताएं होली के बहाने प्रेषित करते हैं और ग़ज़ब लोग उनकी वाहवाही करते हैं जैसे इन कवियों ने इन्हें गीता का सिद्धांत ही बता दिया हो ।
इस समाज को बर्बाद करने में सबसे बड़ा हाथ भोजपुरी का है ।
कवि और लेखक का कर्तव्य है कि सही विषय का प्रतिपादन करें जिससे लोगों में यथोचित गुणों या संस्कारों का बीजारोपण हो न कि अपनी संस्कृति को मलिन करने का कार्य हो ।
होली, एक ऐसा त्यौहार जो प्रेम, सौहार्द्र और बुराई पर अच्छाई के विजय के प्रतीक के रूप में मनाई जाती है, उसे धीरे-धीरे ऐसी कालिख़ पोत दी गयी कि उसका मूल अर्थ कहीं खो गया और इस त्यौहार में अश्लीलता, अभद्रता ने अपना परचम लहरा दिया ।
भक्त प्रहलाद के बच जाने, बुआ होलिका के जल जाने के कारण अर्थात भक्ति विजय दिवस के रूप में मनाये जाने वाला यह त्यौहार आज अपने बहुत बुरे दौर से गुजर रहा है ।
भगवान शंकर द्वारा कामदेव को भस्म करने और शिव-पार्वती के शुद्ध निष्काम प्रेम जिसमें काम का अभाव है, ऐसे प्रेम के विजय के रूप में रंगों का त्यौहार मनाये जाने वाले दिवस में काम-वासना की सबसे ज्यादा प्रचुरता दिखती है ।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पूतना राक्षसी का वध करने के उपरांत उसके विशालकाय शव को छोटे छोटे टुकड़ों में जलाने के उपरांत विजय दिवस एवं खुशियों के प्रतीक के त्यौहार के रूप में मनाया जाने वाला यह त्यौहार आज अपनी अस्मिता खो चुका है ।
वसन्त ऋतु के आगमन और दूसरे ऋतु में प्रवेश करने के कारण शारीरिक व्याधियों से मुक्ति पाने और उनसे बचने के उद्देश्य से जो पलाश पुष्प, पुष्पों से प्राप्त रस से शरीर पर लेप करने और रंगने की वैज्ञानिकता का उद्देश्य समाप्ति की तरफ है ।
पति के मर जाने के उपरांत किसी स्त्री के जीवन का त्यौहार जैसे मर जाता है, उसी को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से एक देवर द्वारा अपनी माँ समान भाभी को अनुनय विनय, काफी समझाने के बाद जो रंग लगाया जाता है ताकि इनका बेरंग जीवन फिर से रंगमय हो जाय और अपने दुःख की पीड़ा से बाहर आ सके, ऐसी परंपरा को अभिशप्त कर दिया एकमात्र अश्लीलता, अभद्रता और अशालीनता की आँधी ने ।
हर त्यौहार, हर शास्त्र, हर सिद्धांत, हर परम्परा का मूल भाव और अर्थ न जाने कहाँ खो जाता है और रह जाता है एकमात्र उसका अर्थहीन वस्त्र । जैसे कोई अपने हाथ की ऊँगली से चन्द्रमा और सूरज की तरफ इशारा करे और हम सूरज और चन्द्रमा की तरफ न देखकर एकमात्र उसकी ऊँगली को देखकर ही उसका अर्थ निकाल लें ।
हमारा यह कर्त्तव्य है कि अपने त्यौहार की अस्मिता, गरिमा, संस्कृति की रक्षा करें और दूसरों को भी उसके महत्त्व से अवगत कराएँ तभी सभी त्योहारों की सार्थकता को हम पूरी तरह सुसज्जित और गौरवान्वित करके अपने मूल उद्देश्यों को प्राप्त करेंगे।
आप सभी को आने वाली होली अर्थात भक्ति विजय दिवस / रंगोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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होली
आजकल होली बस चोली भिगोने तक सीमित रह गयी है । देवर-भाभी की छेड़छाड़, रंग लगाने का प्रचलन और भोजपुरी गानों की अश्लीलता भरे एल्बम, भंग, शराब, गाँजा, अभद्रता इत्यादि ने होली के रूप को और भी वीभत्स कर दिया है।
आजकल के तथाकथित कवि भी अभद्र, अमर्यादित कविताएं होली के बहाने प्रेषित करते हैं और ग़ज़ब लोग उनकी वाहवाही करते हैं जैसे इन कवियों ने इन्हें गीता का सिद्धांत ही बता दिया हो ।
इस समाज को बर्बाद करने में सबसे बड़ा हाथ भोजपुरी का है ।
कवि और लेखक का कर्तव्य है कि सही विषय का प्रतिपादन करें जिससे लोगों में यथोचित गुणों या संस्कारों का बीजारोपण हो न कि अपनी संस्कृति को मलिन करने का कार्य हो ।
होली, एक ऐसा त्यौहार जो प्रेम, सौहार्द्र और बुराई पर अच्छाई के विजय के प्रतीक के रूप में मनाई जाती है, उसे धीरे-धीरे ऐसी कालिख़ पोत दी गयी कि उसका मूल अर्थ कहीं खो गया और इस त्यौहार में अश्लीलता, अभद्रता ने अपना परचम लहरा दिया ।
भक्त प्रहलाद के बच जाने, बुआ होलिका के जल जाने के कारण अर्थात भक्ति विजय दिवस के रूप में मनाये जाने वाला यह त्यौहार आज अपने बहुत बुरे दौर से गुजर रहा है ।
भगवान शंकर द्वारा कामदेव को भस्म करने और शिव-पार्वती के शुद्ध निष्काम प्रेम जिसमें काम का अभाव है, ऐसे प्रेम के विजय के रूप में रंगों का त्यौहार मनाये जाने वाले दिवस में काम-वासना की सबसे ज्यादा प्रचुरता दिखती है ।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पूतना राक्षसी का वध करने के उपरांत उसके विशालकाय शव को छोटे छोटे टुकड़ों में जलाने के उपरांत विजय दिवस एवं खुशियों के प्रतीक के त्यौहार के रूप में मनाया जाने वाला यह त्यौहार आज अपनी अस्मिता खो चुका है ।
वसन्त ऋतु के आगमन और दूसरे ऋतु में प्रवेश करने के कारण शारीरिक व्याधियों से मुक्ति पाने और उनसे बचने के उद्देश्य से जो पलाश पुष्प, पुष्पों से प्राप्त रस से शरीर पर लेप करने और रंगने की वैज्ञानिकता का उद्देश्य समाप्ति की तरफ है ।
पति के मर जाने के उपरांत किसी स्त्री के जीवन का त्यौहार जैसे मर जाता है, उसी को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से एक देवर द्वारा अपनी माँ समान भाभी को अनुनय विनय, काफी समझाने के बाद जो रंग लगाया जाता है ताकि इनका बेरंग जीवन फिर से रंगमय हो जाय और अपने दुःख की पीड़ा से बाहर आ सके, ऐसी परंपरा को अभिशप्त कर दिया एकमात्र अश्लीलता, अभद्रता और अशालीनता की आँधी ने ।
हर त्यौहार, हर शास्त्र, हर सिद्धांत, हर परम्परा का मूल भाव और अर्थ न जाने कहाँ खो जाता है और रह जाता है एकमात्र उसका अर्थहीन वस्त्र । जैसे कोई अपने हाथ की ऊँगली से चन्द्रमा और सूरज की तरफ इशारा करे और हम सूरज और चन्द्रमा की तरफ न देखकर एकमात्र उसकी ऊँगली को देखकर ही उसका अर्थ निकाल लें ।
हमारा यह कर्त्तव्य है कि अपने त्यौहार की अस्मिता, गरिमा, संस्कृति की रक्षा करें और दूसरों को भी उसके महत्त्व से अवगत कराएँ तभी सभी त्योहारों की सार्थकता को हम पूरी तरह सुसज्जित और गौरवान्वित करके अपने मूल उद्देश्यों को प्राप्त करेंगे।
आप सभी को आने वाली होली अर्थात भक्ति विजय दिवस / रंगोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ।