आजकल भक्ति का अर्थ और प्रारूप बिलकुल ही बदल गया है । चन्दन लगा लो, एक लोटा जल चढ़ा दो, अगरबत्ती से धुआँ कर दो, शनि को तेल चढ़ा दो, 4 माला जाप कर लो, घंटी बजा दो, तरह-तरह के चालीसा का पाठ कर लो, वैभव लक्ष्मी का व्रत कर लो, मंगलवार को प्रसाद चढ़ा दो, पीपल में धागा बाँध दो, भूखे रह लो, एकादशी व्रत, तरह-तरह के उपवास कर लो इत्यादि-इत्यादि इन्हीं सब में सीमित रह गया है ।
रामचरितमानस का स्पष्ट कथन है –
रामहिं केवल प्रेम पियारा । जानि लेहु जेहिं जाननि हारा ।।
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा । किये कोटि जप जोग विरागा ।।
कहहु भगतिपथ कौन प्रयासा । जोग न जप तप मख उपवासा ।।
सुलभ सुखद मारग यह भाई । भगति मोरि पुराण श्रुति गाई ।।
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ । भक्तिहीन मोहिं प्रिय नहीं सोऊ ।।
भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी । बिनु सत्संग न पावहि प्रानी ।।
तव पद पंकज प्रीति निरंतर । सब साधन कर फल यह सुन्दर ।।
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई । अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ।।
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे । लवण बिना बहु व्यंजन जैसे ।।
एक बात नहीं समझ में आती कि लोगों को वेदों शास्त्रों, रामायण, गीता आदि के सिद्धान्तों पर विश्वास नहीं है क्या जो पोंगा पंडितों को मानकर कर्म करना शुरू कर देते हैं। अरे भाई ये सब व्यवसाय का एक माध्यम है । आज के 20 साल पहले कोई शनिदेव, संतोषी माता, साईं बाबा इत्यादि का मंदिर नहीं था परंतु आज तो गली-गली नुक्कड़ पर ये सब मंदिर देखे जा सकते हैं । शनिदेव को तेल चढ़ाते तो बड़े बड़े स्वयंभू विद्वानों तक को देखा है । कैसे ये धर्म के सिद्धांतों का मजाक उड़ाते हुए पाये जाते हैं और फिर यही लोग कहेंगे भी की हिन्दू धर्म में बहुत रूढ़ियाँ और फ़ालतू की बातें हैं ।
भगवान के नाम पर खाना नहीं खाते । अरे भगवान ने खाने को कब मना किया है ? अगर ऐसा होता तो हर गरीब भूखे को भगवत्प्राप्ति हो गयी होती। भगवान का शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है । उनका सम्बन्ध मन से है केवल मन से। ये फ़ालतू के देवी देवताओं से कोई लाभ नहीं होगा।
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥
कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै।
‘सूरदास’ प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥
व्रत उपवास तो शरीर के तर्पण और उसकी शुद्धि के लिए है । ये तो इसलिए बनाया गया ताकि उससे लोग स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकें । व्रत का अर्थ होता है कि किसी भी बात का पूर्णतः पालन करना । उसका खाने के साथ वैसा ही सम्बन्ध है जैसे पहाड़ का छोटा सा पत्थर ।
उदाहरण के लिए—-
मैं व्रत लेता हूँ की मैं दिन भर भगवान् के सिवाय कुछ नहीं सोचूँगा ।
आज मैं व्रत लेता हूँ की दिन भर पढ़ाई करूँगा ।
पहले इस व्रत में लोग इतना कठिनता से पालन करते थे की खाना-पीना भूल जाते थे । आज सब मूल बात को छोड़कर खाना-पीना छोड़ देते हैं । हद है लोगों के समझने की ।
ऐसे ही उपवास शब्द है जिसका अर्थ है उप + वास अर्थात मेरा मन आज केवल भगवान् के पास ही वास करेगा । इसी धुन में लोगों को खाने-पीने की सुधि नहीं रहती थी । पर लोगों ने मूल बात भुला दी और खाना-पीना छोड़ दिया ।
भगवान का सम्बन्ध केवल प्रेम से है । उनको केवल और एकमात्र साधन प्रेम से ही पाया जा सकता है । कोई भी शारीरिक साधन उनसे नहीं मिला सकता । आजकल तो लोग टूर बनाते हैं दोस्तों के साथ की चलो वैष्णो देवी माता ने बुलाया है। अरे वो माता वाता का दर्शन कम पर घूमने घामने मनोरंजन करने के उद्देश्य से जाते हैं। उनसे कहो कि ज़रा थोड़ी देर एकांत में घर बैठकर एक घंटे माता का ध्यान कर लो मन से तो इनसे नहीं होगा । पर एक हफ्ते के टूर के लिए तैयार रहेंगे ।
गंगा हरिद्वार में नहा लो जी पुण्य मिल जाएगा । दूर-दूर तक लोग भ्रमण कर आएंगे । अगर ऐसा होता तो सभी गंगा में रहने वाले मछलियाँ मकर इत्यादि सब पुण्यात्मा हो जाते ।
” जब मन चंगा तो कठौती में गंगा ”
सब कुछ मन है । प्रेमाभक्ति से ही लाभ होगा और सब व्यर्थ है ।
Path of Spirituality
प्रश्न- आध्यात्मिकता क्या है ? ऐसा कौन सा मार्ग है जिसपर चलकर जीवन आनंदमय हो सकता है ? उत्तर– आध्यात्मिकता का अर्थ है आत्मा सम्बन्धी विषय को प्राप्त करना। जो आत्मिक आनंद से सम्बंधित तत्त्व है, उसे प्राप्त करना। चूँकि हम सब अज्ञान से मोहित होकर स्वयं को शरीर मान लेते...