पर्यावरण : परि + आवरण अर्थात अपने आस-पास के वातावरण जहाँ हम निवास करते हैं या वह परिवेश जो जीवन को जीने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करे l
पर्यावास ( परि + आवास ) भी हम कह सकते हैं। हमारे चारों ओर जो भी वस्तुएँ, परिस्थितियाँ एवं शक्तियाँ विद्यमान हैं, वे सब हमारे क्रियाकलापों को प्रभावित करती हैं और उसके लिए एक दायरा सुनिश्चित करती हैं। इसी दायरे को हम पर्यावरण कहते हैं। यह दायरा व्यक्ति, गांव, नगर, प्रदेश, महाद्वीप, विश्व अथवा सम्पूर्ण सौरमंडल या ब्रह्मांड हो सकता है ।
साधारणतः लोग पर्यावरण का मतलब यही लगाते हैं कि वह भौतिक प्राकृतिक परिवेश जो हमें आँखों से दिखाई पड़ते हैं जैसे पेड़, पौधे, जल, नदियाँ, तालाब, भूमि, जीव, जन्तु इत्यादि ।
पर्यावरण तीन तरह के होते हैं :
1. भौतिक पर्यावरण या प्राकृतिक पर्यावरण : जो हमें अपनी आँखों से दृष्टिगोचर होते हैं । जैसे- सभी प्राकृतिक संसाधन जिसमें जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, भूमि, वायुमंडल इत्यादि । भौतिक पर्यावरण प्राकृतिक उन सभी संसाधनों से सम्बन्धित है जो स्वस्थ्य जीवन जीने के लिए महत्वपूर्ण हैं ।
2. मानवकृत पर्यावरण : यह मनुष्यों द्वारा सामाजिक पर्यावरण या परिवेश होता है जिसमें आचार-विचार, रहन-सहन, संस्कृति, सभ्यता, आस-पास का सामाजिक परिवेश एवं विचारधारा l
सांस्कृतिक या मानवकृत पर्यावरण में आर्थिक क्रियाएँ, धर्म, अधिवास, आवासीय दशाएं एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ आदि सम्मिलित हैं । मानवकृत पर्यावरण धार्मिक उन्नति से सम्बन्धित है ।
3. आंतरिक पर्यावरण : यह मन और आत्मा को ढँकने या प्रभावित करने वाला आवरण या पर्यावरण होता है । जैसे- आपके विचार, काम, क्रोध, लोभ, मोह, इर्ष्या, दुर्भावना, प्रेम इत्यादि l आन्तरिक पर्यावरण आध्यात्मिक उन्नति से सम्बन्धित है ।
सबसे रोचक बात यह है कि ये तीनों पर्यावरण आपस में एक दूसरे के पूरक हैं । अगर हम आन्तरिक पर्यावरण को ठीक कर लेते हैं या उसको प्रदूषित होने से बचाते हैं तो स्वतः ही हम मानवकृत पर्यावरण और भौतिक पर्यावरण को संरक्षित और प्रदूषित होने से बचाते हैं । अगर हम मानवकृत पर्यावरण को ठीक कर लेते हैं अर्थात् अपनी संस्कृति और सभ्यता या सामाजिक परिवेश को सुदृढ़ और सुसभ्य करते हैं तो अपने आप आंतरिक और भौतिक पर्यावरण के संवर्धन और संरक्षण को पोषण मिलेगा । यही एक लक्ष्य होना चाहिए कि तीनों पर्यावरण जिसमें भौतिक, मानवकृत एवं आन्तरिक पर्यावरण सम्मिलित हैं, उन सभी का पोषण, संरक्षण और सुन्दर विचारों से विकास करना तथा इन सभी को प्रदूषित करने वाले जितने भी कारक और घटक हैं, उनका विनाश करना ।
प्रदूषण का कारक कोई भी हो सकता है, जैसे :
भौतिक पर्यावरण के लिए ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण तथा मृदा प्रदूषण इत्यादि ।
मानवकृत पर्यावरण के लिए दूषित आचार-विचार, दूषित संस्कृति, दूषित परिवेश, सामाजिक कुरीतियाँ, अन्धविश्वास, राजनैतिक प्रदूषण, धार्मिक विक्षोभ, सामाजिक विसंगतियाँ, देशद्रोह तथा आर्थिक विसंगतियाँ इत्यादि ।
आन्तरिक पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले कारक जैसे इर्ष्या, दुर्भावना, क्रोध, असमानता की भावना, अशांति, लिप्सा, प्रमाद, और आलस्य इत्यादि। ऐसे प्रदूषित तत्व जो आत्मा और मन का हनन करते हैं तथा आध्यात्मिक उन्नति में बाधा पहुंचाते हैं ।
इन सभी प्रदूषण कारकों और विघटनकारी तत्वों का विनाश पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्यों में समाहित है ।
पेड़ लगाना, जल संवर्धन करना, इत्यादि कार्य भौतिक पर्यावरण को पोषित करते हैं।
सुसभ्यता, सुसंस्कृति, सुविचार, सामाजिक एवं आर्थिक संवर्धन, परिशोधित राजनीति, शस्त्र एवं शास्त्र का समयानुकूल उचित प्रयोग और वैज्ञानिक संवर्धन जैसे वृक्षारोपण भी हमें मानवकृत पर्यावरण हिताय करना होगा ।
प्रेम, उदारता, विशालता, आत्मिक शांति, सात्विकता इत्यादि का वृक्षारोपण भी सबके हृदयस्थली में हमें करना होगा जिससे उपर्युक्त पर्यावरण को बल मिल सके ।
Spirituality and Plants
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